Monday, March 04, 2019

Lovers of god ( प्रभु को प्यार करने वाले ।)

एक मोची बेहद गरीब था , उसकी पत्नी वेश्या थी ।
और उसका एक ही बेटा था जो कि प्रभु से बहुत प्रेम करता था ।
एक दिन वह मोची घर जल्दी आ गया तो देखा कि उसका बेटा बन्दगी में  बैठा है । वह मोची क्रोध से भर गया और हाथ में पकड़ी हुई शराब की बोतल उसके सिर पर दे मारी । बेटे का सारा सिर खून और शराब से भर गया और उसकी एक आंख खत्म हो गयी । उसे आवाज़ आई कि " ए नोजवान , उठो , घबराओ नही , बन्दगी न छोड़ना , तुम इसी एक आंख वाले बन कर सबके दिलों पर राज़ करोगे ।"  और उसने बन्दगी नहीं छोड़ी ।
उसका नाम एक आंख वाला खान पड़ गया । वह लोगों को प्रभु की बातें सुनाने लग गया । जब वह बोलता तो चिड़ियाँ चहचहाना बन्द कर देती थीं । उसे सुनने के लिए लोगों की भीड़ बढ़ने लगी ।
उस जगह का राजा काफी उम्र का हो चला था । उसकी कोई संतान न थी । वह अपने उत्तराधिकारी की तलाश में था । उस राजा ने उस एक आंख वाले का नाम सुन रखा था । राजा ने उसे बुला भेजा । और साथ ही अपने कुछ वज़ीरों की भी बुलाया । सभी उसके पास बैठ गए । राजा ने वजीरों को अपने दिल की बात बताते हुए कहा कि उसने अपना उत्तराधिकारी चुनने ही आप सभी को बुलाया है । आप सभी ने जो भी अच्छा काम इस राज्य के लिए किया है , बयां करें । एक आंख वाला भी वहीँ था और वो दिलों की जानने का गुण रखता था ।
सबसे पहले उसने खज़ाना वज़ीर से उसकी क़ाबलियत पूछी तो उसने जवाब में कहा कि उसने ख़ज़ाने में धन दौलत भरी है । सोने चांदी से भरपूर कर दिया है ।
तब राजा ने पूछा कि , " यह बताओ कि गरीब अब तक गरीब क्यों और भिखारी अब तक भिखारी क्यों है ? "
" शायद अल्लाह को यही मंज़ूर है । "
इसके बाद मुख्य काज़ी ( कानून मंत्री कह सकते हो )
ने कहा " मैंने मुल्क में सारे बन्दोबस्त ठीक किये हैं और कई नए कानून भी बनाए हैं । "
" तो फिर गरीब की फरियाद क्यों नहीं सुनी जाती ? ",
" शायद अल्लाह को यही मंज़ूर है ।"
अब मौलवी जी बोले , " मैने सभी मसजिदों का बंदोबस्त ठीक किया है "
" तो फिर लोग मस्जिद में जाकर मौलवियों की नसीहतें सुनने की बजाए एक आंख वाले को सुनना क्यों ज्यादा पसंद करते हैं ।
अंत में राजा ने एक आंख वाले से पूछा कि इनमें से राजा बनने की क़ाबलियत किसमें है ?
एक आंख वाले ने अपने अंदर की आवाज़ सुन कर जवाब दिया कि , " मैं कहता हूँ कि हर कोई अपने अंदर की दौलत ( खुदाई ) से मालामाल होता है न कि व्यापार और कर ( टैक्स ) लगाने से ।
" मेरा कहना है कि आपकी प्रजा अल्लाह के इश्क के कानून से शांति हासिल करती है न कि सिपाहियों के कौडों और जंज़ीरों से ।"
मेरा कहना है कि " हर कोई अपने मस्तक में गूंज रहे इलाही संगीत की धुनों से शांति हासिल करता है न कि मस्जिद में घुटने टेकने से । "
अब तीनों वज़ीर उसे मारने को लपके तो राजा ने उन्हें रोकते हुए कहा , " इसकी पूरी बात सुनी जाए ।"
" हर व्यक्ति को खुदा बराबर का प्यार देता है , किसी को कम या ज्यादा नही ।" 
तीनों वज़ीर उसका जवाब सुन आग बबूला हो गए और उसे पीटने कर लिया लपके ।
तब राजा ने कड़क आवाज़ में कहा , " मैं इसे अपना उत्तराधिकारी बनाता हूँ । यह अभी इसी वक्त से राजा है ।"
अब वज़ीरों ने कहा " महाराज , यह एक मोची का बेटा है और इसकी माँ एक वेश्या है " ।
" पर अब यह मेरा बेटा और तुम्हारा राजा होगा । "
वह एक आंख वाला केवल इस लिये राजा बन गया कि वह अपने अंदर की आवाज़ को सुनता था । वह अंदर से प्रकाश से भरपूर था ।
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आप सोचो कि प्रभु से प्यार करने वाले को वह बाहर से तो मालामाल करता ही है और भीतर से अपनी दौलत से भी भरपूर कर देता है । तो क्या आपको अपनी दौलत से भरपूर न करेगा ?
सोचो नही , बन्दगी करो । समय व्यर्थ न हो ।

Friday, March 01, 2019

कौशिश

कल ही एक पुस्तक पढ़ रहा था । एक सन्यासी का ज़िक्र था उसमें । वह सन्यासी एक प्रकार से घुमक्कड़ साधु था । गांव दर गांव घूमता रहता था । जहाँ से भोजन मिल गया वहीँ कर लिया । जहाँ विश्राम को जगह मिली वहीँ विश्राम कर लेता था ।
प्रभु की तलाश थी , ध्यान सुमिरण भी समय से करता था ।
एक दिन वह एक गांव में पहुंच गया । दिन ढल चुका था । सभी दरवाज़े बन्द मिले पर गांव से बाहर उसे एक दरवाजा खुला हुआ मिला । वह उस द्वार पर पहुंचा तो एक व्यक्ति बाहर निकल कर कहीं जाने की तैयारी में लग रहा था । सन्यासी को द्वार पर खड़ा देख वह व्यक्ति रुक गया और सन्यासी को अंदर चल कर भोजन करने का आग्रह किया । सन्यासी ने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया ।
वह व्यक्ति अकेला ही रहता था । उसने सन्यासी को भोजन करवाया और रात वहीँ रुकने का आग्रह किया । सन्यासी ने इस आग्रह को भी स्वीकार कर लिया । उस व्यक्ति ने सन्यासी के लिए बिस्तर बिछा दिया और कहा , " आप आराम से सोएं ,  मुझे अपने काम से बाहर जाना है । सुबह वापिस आऊंगा ।" " काम पर , इस वक्त " ?
 " हाँ महाराज , मेरा काम रात को ही होता है ?
 " कहीं चौकीदार हो ? 
  " नही महाराज , मैं एक। चोर हूँ , मेरा काम तो रात ही में चलता है , कल के लिये दाल रोटी का इंतज़ाम जो करना है , इसी लिए अभी जा रहा हूँ ।" यह कह कर वह चला गया ।
 सुबह दिन नही हुआ था , द्वार खटका । सन्यासी ने उठ कर द्वार खोला तो उसी चोर को खड़े देखा जिसके घर में ठहरा था । चोर अंदर आया और सन्यासी से हाल चाल पूछा और पूछा कि कोई परेशानी तो नहीं हुई रात को ? सन्यासी ने उसे रात में जगह देने और भोजन के लिए धन्यवाद दिया और चलने की तैयारी में लग गया ।इस पर चोर ने कहा , " सुबह का हल्का नाश्ता वगेरह कर लें , फिर चले जाना । " सन्यासी ने हामी भर दी और चोर ने नाश्ता तैयार कर परोस दिया । बातों ही बातों में सन्यासी ने पूछा , " रात को कोई काम बना ? "
 " नही महाराज , आज रात तो कामयाबी नहीं मिली । कल फिर कौशिश करूंगा , आज नही तो कल , कल नही तो कभी तो कामयाब हो ही जाऊंगा  " . 
सन्यासी को अपने भीतर में एक झटका लगा । सोचने लगा , "  मुझसे तो यह चोर भला , कम से कम इसने हार तो नही मानी , उम्मीद रखता है कि आज नही तो कभी तो कामयाबी मिलेगी । मुझे जब ध्यान और सुमिरण में कामयाबी नहीं मिलती तो कई बार छोड़ कर बैठ जाता हूँ । " सन्यासी मन ही मन में खुद को धिक्कारने लगा और उस चोर को भी हाथ जोड़ कर कहा कि , " आप चाहे चोर हो , पर आपसे कभी उम्मीद न छोड़ने की सीख लेकर जा रहा हूँ । "
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 हम में से बहुत ऐसे ही हैं । भजन सुमिरण में मन नही लगता , कामयाबी नज़र नही आती तो भजन बन्दगी छोड़ देते हैं और सोचते हैं कि पता नही रब्ब है भी या नही ।
 उम्मीद हमेशां बनाए रखनी चाहिए । कभी तो कामयाब हो ही जाएंगे । सतगुरु पर से विश्वास नहीं खत्म होना चाहिए ।
आज इतना ही ।
बाकी फिर कभी । 
 आपने ध्यान से पढ़ा ।
आपका धन्यवाद । 
 कृप्या कमेंट में भी कोई नसीहत दें ।

Saturday, September 24, 2016

Parmatma_परमात्मा

हमारा असली जन्म तो तब होता है जब हमें अपने भीतर छिपे परमात्मा का अनुभव होता है । दुःख होता है कि कोई कोशिश ही नही करता कि यह अनुभव हो ।
 यह जो प्रकृति है , यह परमात्मा का विराट रूप है । और यही विराट रूप हमारे भीतर में सूक्ष्म रूप में है । यह प्रकृति उस परमात्मा का प्रेम है और इसी प्रेम का झरना हमारे भीतर भी सुगबुगा रहा है । आपके भीतर में प्रेम का झरना फूट पड़े । बस यहीं से प्रार्थना का आरंभ होता है ।
 आपके भीतर में अगर प्रेम पैदा हो गया , आपकी आँखे भर आईं , आपके भीतर में उसमे समा जाने , खुद मिट जाने की तैयारी हो तो बन्दगी पैदा हो जाएगी । प्रार्थना पैदा हो जाएगी ।
  आओ , मिट जाने की तैयारी करो , उसके लिए अपने भीतर में पुकार पैदा करो । आपकी पुकार वह सुनेगा , तत्काल , उसी क्षण , बिना देरी के ।
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Sunday, July 03, 2016

सिकन्दर की सोच

 आज हम आपके साथ सिकन्दर की बात करने जा रहे हैं ।

 सिकन्दर ने अपने बाग़ में पुरातन और वर्तमान समय के वीर पुरुषों की मूर्तियों को लगाया हुआ था । उन मूर्तियों को देखने के लिए लोग दूर दूर से आया करते थे । 
 एक बार किसी दूर देश का राजा उसके पास मेहमान बन कर आया हुआ था । सिकन्दर के राजमहल में ही ठहरा हुआ था । सिकन्दर उसे अपने साथ उसे बाग दिखाने के लिए ले गया । उस बाग़ में खड़ी सभी मूर्तियों से वह काफी प्रभावित हुआ । सिकन्दर ने उन सभी महापुरुषों के बारे में विस्तार से समझाया और बताया कि किस विशेषता के कारण उसकी मूर्ती को लगाया गया है । 
 सभी मूर्तियां देखने के बाद उस मेहमान ने हैरान होकर पुछा कि  " आपकी मूर्ति नज़र नही आई ? "
 इस पर सिकन्दर ने जवाब दिया कि " आने वाले समय में , मेरे बाद , मैं यह नही चाहता कि कोई मेरी मूर्ति को देख कर पूछे कि यह किसकी मूर्ति है , जो भी पूछे , बस यही पूछे कि यहां सिकन्दर की मूर्ति क्यों नही लगाई गई ? " 
  अब मैं पाठकों से पूछना चाहूंगा कि आपको सिकन्दर का जवाब कैसा लगा ? कृप्या जरूर बताएं ।

Friday, January 02, 2015

Marg darshak

  मार्ग दर्शक

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सुबह सूर्य की तरफ मुख हो तो परछाई पिछली तरफ बहुत लम्बी होती है ।
सुबह के सूर्य को अपना यह जन्म मान लो । हमे यह जन्म मिला , मुख परमात्मा की तरफ रखो पर याद रहे कि अपने ही किये हुए कर्म , तब के भी जब से सृष्टी अस्तित्व में आई , हमारे पीछे पीछे ही हैं जैसे कि हमारी परछाई । हम अपनी परछाई से चाह कर भी छुटकारा नही पा सकते , उसी प्रकार अपने किये हुए कर्मो से  भी छुटकारा नही पा सकते । कर्म हमने किये , भुगतान हमी को करना है ।
बिना कर्मों का भुगतान किये हम मोक्ष को नही पा सकते । मुक्ति के लिए कर्म विहीन होना पड़ता है । कर्म विहीन होने का मार्ग गुरु के इलावा कोई नही सुझा सकता । गुरु द्वारा बताई गयी युक्ति ही आगे का मार्ग प्रशस्त करती है ।
कुछ  लोग सोचते हैं कि गुरु की क्या जरूरत है ?
हम लोग छोटे छोटे काम सीखने के लिए किसी को भी उस्ताद यानि गुरु कहने से नही झिझकते , पर अध्यात्म के मार्ग के लिए मबिना गुरु बिना कैसे चल सकते है , जो कि जटिल मार्ग है ।
साइकिल मिस्त्री बनना हो तो किसी साइकिल के पुराने मिस्त्री की शरण लेनी पड़ती है , स्कूटर मकैनिक बनने हो तो भी । medicle लाइन में डॉक्टर बनना हो या फार्मासिस्ट , शरण गुरु की लेनी हो होगी पर जब परमात्मा प्राप्ति की बात आती है तो " उस्ताद की क्या जरूरत ? " ये डायलाग आम सुनने को मिल जाता है ।
एक व्यक्ति रात के अँधेरे में अपनी गाड़ी ( कार ) से जा रहा था । घुप्प अँधेरा था और उसकी गाड़ी की हैड लाइट खराब हो गयी । इस रास्ते पर वो आया भी पहली बार था , रास्ते की जानकारी न थी । तभी उसे घण्टी की आवाज़ सुनाई दी । यह घण्टी की आवाज़ एक बैल गाड़ी में जुते हुए बैल के गले में बन्धी हुई घण्टी की थी । बैल गाड़ी पास आई तो कार वाले ने उसे अपनी प्रॉब्लम बताई । गाड़ी वान् ने कहा , " चिंता न करो , मेरे पीछे पीछे चलते रहना , अँधेरे से बाहर रौशनी तक तो पहुंच ही जाओगे "
कार वाला बैल गाड़ी के पीछे पीछे चलता हुए अँधेरे स्थान से निकल कर रौशनी वाली जगह तक पहुंच गया , उसने बैल गाड़ी वाले को कई बार शुक्रिया कहा ।
आप सोचें , हम इस संसार में अपनी आवश्यकता अनुसार किसी के भी पीछे हो लेते हैं , हम नही देखते ऊँच नीच या जाति पात इत्यादि , पर जिस मार्ग पर " उसकी " प्राप्ति होनी है , हम उसके लिए मार्ग दर्शक की जरूरत ही महसूस नही करते ।
अगर मेरे लिखे से किसी के हृदय को चोट पहुंची हो तो क्षमा चाहूँगा ।
अगर पोस्ट अच्छी लगी है तो कमेंट बॉक्स में कमेंट जरूर लिखें ।
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Sunday, November 09, 2014

Santo ka prem ( सन्तों का प्रेम )

सन्तों का प्रेम
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बात उस समय की है जब अभी डेरा beas शुरुयाती दौर में था ।
एक दिन बाबा सावन सिंह जी महाराज सत्संग की समाप्ति के बाद शिष्यों से आध्यात्मिक विषयों पर ही बातें कर रहे थे तथा जिज्ञासुओं की जिज्ञासाओं को शांत स्वभाव से शांत कर रहे थे । हर प्रश्न का उत्तर बहुत ही सरलता से दे रहे थे और श्रद्धालु भी प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे ।
अभी बातें खत्म न हुई थी कि एक सरदार साहिब जिनके पास काफी सामान भी था , बाहर से आए और सीधे महाराज जी के चरणों पर सिर रख कर फूट फूट कर रोने लग गए । उनका रोना बहुत ही दर्द विदारक था कि उनका रोना देख कइयों की आँखे भी भीग गयीं । महाराज जी ने बड़े प्यार से सिर पर हाथ रख कर पुछा " भाई क्या हुआ ? " पर वो थे कि रोए जा रहे थे । धीरे धीरे रोना कम हुआ पर सुबकना बन्द नही हुआ ।
महाराज जी ने बहुत प्यार से समझाया ," रोने से क्या होगा , कुछ बोलो तो ? "
धीरे धीरे रोना बन्द हुआ , उन्हे पीने को पानी दिया गया ।
बाबा सावन सिंह जी ने पुछा , " कहाँ से आये हो ? "
उन्होंने उत्तर में किसी दूर देश का नाम बताया और ये भी बताया कि वो चार साल बाद वापिस आये हैं और हवाई अड्डे से सीधा ब्यास पहुंचे हैं ।
बाबा जी ने रोने का कारण पुछा ।
उनका जवाब था ," महाराज जी , चार साल का बिछोड़ा बर्दाश्त से बाहर हो गया था , आना तो अभी नही था , पर जल्दी इस लिए आया हूँ क्योंकि अगर महीने में गुरु के दर्शन एक बार न किये जाएँ तो जीव पर से गुरु का हाथ हट जाता है ।"
" तुमसे किसने कह दिया ?"
" बाबा जी , आप कई बार °अनुराग सागर° ( कबीर साहिब की रचना ) पढ़ने की सलाह दिया करते थे । "
" हाँ , बहुत ही अच्छी है , सबको पढ़नी चाहिए । "
" महाराज जी , उसी किताब में कबीर साहिब ने कहा है कि कम से कम महीने में एक बार गुरु के दीदार जरूर करने चाहिए , नही तो गुरु से शिष्य का अंदरूनी सम्पर्क टूट जाता है और कृपा का हाथ हट जाता है ।"
" पर तुम क्यों रो रहे हो ? "
" महाराज जी , मुझे तो चार साल हो गए , मुझ  से आपका सम्पर्क जो टूट गया , इसी लिए मैं  वहां रोज़ रोता था , कि अभी अगर आखरी सांस आ गई तो ,  मै तो निगुरा ही चला जाऊँगा , मुझे कौन सम्भालेगा ?  इसी लिए आपके दीदार की खातिर रोज़ रोता था ।"
" अरे ओ भोले बन्दे , मैंने कब कहा था कि महीने में एक बार का दीदार जरूरी है ?"
" जी , अनुराग सागर में कबीर साहिब ने कहा है ।"
  बाबा सावन सिंह जी महाराज ने बड़े ही प्यार से कहा ,
" कबीर साहिब ने कहा था , मैंने तो नही कहा था न ? "
फिर सावन सिंह जी महाराज ने सभी की तरफ देखते हुए कहा ,
" आप लोग भजन बन्दगी को मत छोड़ो , दुनिया में कहीं भी चले जाओ भजन बन्दगी को साथ रखो , आप पर से गुरु का हाथ नही हटेगा और गुरु कृपा सदा आपके संग ही रहेगी । "
ये एक सन्देश है प्रभु का , कि शिष्य को भजन बन्दगी कभी नही छोड़नी चाहिए । ये सन्तों का प्रेम ही है कि उन्होंने सहज ही एक वायदा कर दिया ।
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आज बस इतना ही ________
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Inder singh
( इंद्र सिंह )

Tuesday, October 28, 2014

man ke khel ( मन के खेल )


मन के खेल
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अब जो आप पढ़ने जा रहे हो , ये भी अदभुत लाल की ही कहानी है ।
अद्भुत लाल की नई नई शादी हुई थी । दुल्हन घर आ गयी । उस समय अद्भुत लाल एक दूकान पर साधारण सी नौकरी करता था । नई नई शादी थी । एक दिन बीवी ने कहा , " कभी कोई फिल्म वगैरह ही दिखा दो ,कहीं घुमाने ही ले जाया करो ।"
एक बार , दो बार तो अद्भुत लाल ले गया , पर उसे चिंता लग गयी कि अगर इसे ले जाऊं तो वेतन पूरा नही पड़ेगा । महीने के आखिरी दिनों में तंग होना पड़ेगा । उसे चिंता लग गयी , कि अभी तो नई नई शादी हुई है , कल को बच्चे भी हो जायेंगे , घर का खर्च कैसे चलेगा ? ये सोच आते ही उसे चिंता सताने लगी । अब क्या करे अद्भुत लाल । अद्भुत लाल के ही गाँव में एक पंडित जी रहते थे जो कि लोगों को भविष्य बताते और अगर कोई उपाए पूछे तो वो भी बता देते थे । अद्भुत लाल ने उन्ही के पास जाने की सोची ताकि आने वाले समय में धन अभाव न रहे ।
अद्भुत लाल अगले दिन ही पंडित जी पास पहुंच गया । पंडित जी ने आने का कारण पूछा तो उसने अपनी समस्या पंडित जी को बता दी ।
पंडित जी ने कहा , , " आपको लक्ष्मी के जाप करने चाहिए , लक्ष्मी के जाप करने से आपको धन अभाव नही होगा , धन कैसे आएगा कहाँ से आएगा , तुम्हे इसकी चिंता करने की कोई जरूरत नही , बस आप जाप करो , सब ठीक रहेगा ।"
" आप बता दो कि जाप करना कैसे है , और जाप जो करना है वह भी बता दो " ।
पंडित जी ने उसे मन्त्र भी दे दिया और सारी विधि भी समझा दी ।
घर आकर अद्भुत लाल ने जाप की तैयारी शुरू कर दी । पत्नी थोड़ी देर तो देखती रही , उससे रहा न गया ,और उसने पूछ ही लिया ," कहाँ जाने की तैयारी हो रही है ? "
" नही , जाना तो कहीं नही है , लक्ष्मी के जाप शुरू करने लगा हूँ , हाथ बहुत तंग रहने लग गया है न , इस लिए ।"
" जाप क्या गुरु जी से लाये हो ? "
" अरी भागवान , अपने गुरुदेव तो बस परमात्मा से मिलने का मार्ग ही बताते हैं , कोई उपाए वगैरह नही सुझाते " ।
 " तो इसका मतलब है कि तुम बिना गुरु की इज़ाज़त लिए ही जाप करोगे ? "
 " शुरुयात तो गुरु वन्दन से ही करूंगा ।"
 " पर गुरुदेव को पता होगा तभी तो कामयाब होवोगे " ।
 " नही ऐसी कोई बात नही है गुरु वन्दना जो पहले हो जायेगी न " ।
 " नही , बिलकुल नही , पहले गुरुदेव से आज्ञा लो , उसके बाद ही जाप करना । "
 " हे भगवान , तू कहाँ से मेरे पल्ले पड़ गयी , हर काम में अड़ जाती है ? "
  " क्या कहा , मैं तुम्हारे पल्ले पड़ी हूँ , मैं पल्ले नही पड़ी हूँ , तुम्ही ने पहले मुझे अपने पल्ले से बंधवाया और बाद में सात फेरे लेकर  अपने साथ यहाँ लाये हो । तुम्हे तो सबने बधाइआँ दी थी और साथ ही सब नाच रहे थे ।तुमने सबकी बधाईआँ कबूल की थीं , समझे ?
  "  भागवान , अब चुप भी कर " ।
" तुम ये जो शुरू करने जा रहे हो , पहले गुरु जी की परमिशन लो ।"

" ठीक है भागवान पहले परमिशन ही ले लेते हैं ।"
 " मैं भी चलूंगी आपके साथ ।"
" ठीक है , तुम भी चलना ।"
और फिर रविवार को दोनों गुरुदेव के आश्रम पहुंच गये ।
सत्संग के बाद दोनों गुरुदेव के सामने खड़े हो गये ।
गुरुदेव ने बहुत ही प्रेम से देखा और हाल पूछा ।
 न्यारो बोली , " बात ऐसी है कि ये जो हैं न , लक्ष्मी के जाप करना चाहते हैं , इस लिए आपके पास परमिशन लेने आए हैं ।"
 अब गुरुदेव सोचने लगे कि अद्भुत लाल कोई न कोई झंझट खड़े करता ही रहता है ।जो मिलना है , वो तो प्रारब्ध अनुसार मिलना ही है । कुछ सोचते हुए गुरुदेव बोले
" देख अद्भुत , हमे तो कोई एतराज़ नही है , पर तुम चाए बहुत पीते हो , याद रखना जाप करते वक्त तुम्हारा ख्याल चाए की तरफ न जाए और न ही तुम्हारे ख्याल में बन्दर ही आए ।नही तो कामयाब नही हो पाओगे । "
 " नही महाराज़ जी , बन्दर और चाए का जाप से तो कोई सम्बन्ध ही नही । उधर खयाल नही जाएगा " ।
" ठीक है , जाओ और जाप शुरू करो ।"
 गुरुदेव के आश्रम से घर वापिस आकर अद्भुत लाल ने बड़े जोरशोर से तैयारी शुरू कर दी ।
पंडित जी की बताई हुई विधि के अनुसार ही रात को आसन लगा लिया और जप शुरू किया ।अभी जप शुरू किया ही था तो मन में आ गया कि अपना ख्याल एक तो बन्दर और दूसरा चाए की तरफ नही जाना चाहिए ।
आँख बंद की और जाप शुरू हुआ ।
एक मिनट भी पूरा न हुआ कि फिर ख्याल आया कि बन्दर और चाए की तरफ ख्याल नही जाना चाहिए ।
मन को समझाया कि लक्ष्मी ,बन्दर और चाए का कोई सम्बन्ध ही नही तो ख्याल उधर कैसे चला जाएगा । अपने इस विचार से खुद को तस्सली दी और जप दुबारा शुरू किया । पर यह क्या , अभी पांच मिनट ही हुए थे कि एक बन्दर हाथ में चाए की प्याली पकड़े हुए आता नज़र आ गया । अद्भुत का ध्यान टूट गया । जाप फिर से शुरू किया और यह पक्का निश्चय कर लिया कि अब कुछ भी हो जाए , अब उठना नही है , बैठे रहना है ।
दुबारा जाप शुरू किया , पहले एक बन्दर आया हाथ में चाए की प्याली पकड़े हुए , थोड़ी देर में एक और आ गया । अद्भुत लाल ने जप बंद नही किया ।
अब क्या था , देखते ही देखते बन्दर ही बन्दर अद्भुत लाल के चारो तरफ चाय की प्यालियाँ लेकर आ गये ।
अद्भुत लाल तो परेशान हो गया , बन्दर और ये चाये की प्यालीँ , अद्भुत को लगने लगा कि ये बन्दर और चाये की प्याली उसकी साधना शुरू ही नही होने दे रहे तो साधना पूरी कैसे होगी । सारी रात जप शुरू करता और फिर बंद करना पड़ता ।
सुबह हो गयी पर अद्भुत जाप शुरू नही कर सका । सुबह उठते ही गुरुदेव के आश्रम की तरफ भागा । न्यारी देवी को भी पता था कि रात को उसके पति के साथ जो गुज़री थी  । न्यारी भी जल्दी से तैयार होकर पीछे पीछे ही आश्रम में पहुंच गयी । गुरुदेव वहीं बाहर खड़े ही मिल गये । अद्भुत ने जाते ही गुरुदेव को सारी बात बताई जो कि रात को उसके साथ गुज़री थी ।
 गुरुदेव ने सारी बात सुनने के बाद अद्भुत से कहा , जब तक तुम चाए और बन्दर की तरफ से ख्याल नही हटाओगे , कामयाब कैसे होवोगे ?
" गुरुदेव आप ही कृपा करो कि ख्याल उधर न जाए " ।
" देखो अद्भुत , जो तुम्हारे प्रारब्ध में है , वो तुम्हे मिलेगा जरूर , तुम जो भी इच्छा लेकर जप करोगे , भगवान तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर देंगे पर उस इच्छा पूर्ति के बदले में झंझट भी तो आयेंगे ही ।"
" महाराज़ , झंझट कैसे आ जायेंगे ?
 " मन ही झंझट खड़े करता है । तुमने जो सोचा धन अभाव के बारे में , ये फ़िक्र तुम्हारे मन ने लगाई , और जब तुम धन अभाव दूर करने का उपाए करने लगे तो मन ही बन्दर और मन ही चाय की प्याली बन कर तुम्हारे सामने आन खड़ा हुआ । तुम जब भी यहाँ सत्संग में बैठते हो , तो हर बार एक ही बात समझाई जाती है कि मन बहुत चालबाज़ है । ये हर वक्त उलझाए रखता है । जीव को नचाने में मन को बड़ा रस आता है ।"
" इस मन की बातों में न आया करो , इसे समझाया करो । मन जो है न , ये ही कभी बन्दर बन कर नाचता है , और कभी मदारी बन कर नचाता है ।
सावधान रहा करो , क्योंकि मन ही बन्दर है और मन ही मदारी है । मुझे लगता है कि यहाँ सत्संग में बैठते तो जरूर हो , पर तुम्हारा ध्यान सुनने में कम और सोचने में अधिक होता है ।"
" बिलकुल ठीक गुरूजी , इनका ध्यान सुनने की तरफ नही होता , आपने ठीक पहचाना इनको ।" न्यारी देवी बोली ।
 "  तुम तो सुनती हो न ? " गुरूजी ने पुछा ।
 " मैं तो एक एक शब्द को बड़े गौर से सुनती हूँ ,गुरु जी , इसी लिए तो इन्हें आपके पास से परमिशन लेने को कहा था मैंने ही ।"
 " भगवान् ने इसी लिए शायद हर आदमी के साथ एक औरत लगा दी है । पत्नी गौर से सुने और पति से हर बात जो गुरु ने कही है मनवा ले । आदमी न तो गुरु की कोई बात मानते और न ही बड़ों की , पर ये जो औरत है न ,हर बात मनवा ही लेती है " ।गुरूजी ने हंसते हुए कहा । गुरु देव की बात सुन कर वे दोनों भी मुस्कुराए बिना न रह सके ।

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आपने आज अद्भुत लाल की इस कहानी को पढ़ा , कैसी लगी ? विचार जरूर लिखें ।
धन्यवाद ।
Inder singh ( इंद्र सिंह )

Saturday, September 27, 2014

zulm ( ज़ुल्म )

#अध्यात्म 


मुल्ला काजियाँ सानू संगसार कीता
सानू पीड़              जरा न होई ।
मेरे सजन   आन इक फुल्ल मारिया
मेरी रूह            अम्ब्रां तक रोई ।
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यह जो आपने पढ़ा है । यह पंजाबी में है ।
इसका भाव इस प्रकार है ----

मुल्ला एवम काजी के आदेश अनुसार मुझे  संगसार किया गया ।
मुझे , मुझे जरा दर्द न हुई ।
पर जब मेरे अपने ने आकर पत्थर की जगह फूल दे मारा तो मेरी रूह आसमानों तक रोई ।

यह किसी कवि या शायर की रचना है ।
आज इसी पर लिखने का मन है ।
कट्टर लोगों के जुल्मों से इतिहास भरा पड़ा है ।
कट्टर लोगों द्वारा सताये गये में लोगों एक नाम ' हलज ' भी है ।
हलज को बगदाद के कैदखाने में रखा गया था ।
कसूर सिर्फ इतना था कि वे एक पूर्ण संत सतगुरु में विशवास रखते थे ।
उन्हें क़ाज़ी द्वारा संगसार ( पत्थर तब तक मारना जब तक कि मृत्यु न हो जाए । ) करने का हुक्म सुनाया गया था ।
जिस दिन सज़ा का दिन आया उन्हें कैद खाने से निकाल कर बाहर खुले मैदान की तरफ ले जाया जा रहा था । सामने से ही एक उनका अपना गुरु भाई जिसका नाम शिबली था , दिखा ।
अपने गुरु भाई को देखा , आँखों ही आँखों में कह दिया हलज ने कि राज़ी हूँ उसी में जिसमें मुर्शद की रज़ा ।
शिबली ने देखा कि उसका फकीरी ( गुरु ) भाई तीस भारी भरकम जंज़ीरों में बंधा हुआ , बेखौफ शाही और मस्तानी चाल से उसी मैदान की तरफ जा रहा था जहाँ थोड़ी ही देर में उसे संगसार किया जाना था । शिबली भी पीछे पीछे चल दिया । मैदान में एक ऊंचे मंच पर हलज को चढ़ाया गया ।
चारों तरफ भीड़ थी , सभी चिल्ला रहे थे , " मार दो , काफिर है " ।
मंच पर जल्लाद हाथों में तलवारें और कौड़े लिए खड़े थे । खलीफा ने सज़ा सुनाई , " तीन सौ कौड़े मारे जाएँ " ।
सज़ा सुन लेने के बाद भी हलज़ विचलित नही हुआ । कौड़े बरसने लग गये , चमड़ी उखड़ उखड़ कर जगह जगह से लटक रही थी , पर हलज़ के चेहरे पर कोई शिकन न थी । वह मंद मंद मुस्कान के साथ इस ज़ुल्म को सहे जा रहा था , गुरु का प्रेम उसे होंसला जो दे रहा था । पर उसका गुरु भाई शिबली , उसकी रूह कांप रही थी इस ज़ुल्म को देखते हुए । पर वो कर भी क्या सकता था ।
तीन सौ कौड़े पूरे हो गये , पर हलज के चेहरे की मुस्कान कम न हुई । सारी कायनात शायद रोई होगी उस दिन पर हलज पर कोई असर न हुआ ।
अब अगला हुक्म हुआ ," संगसार कर दो " ।
मंच पर केवल हलज के सिवा अब कोई न था । सभी नीचे उतर गये ।
अब पत्थरों की बरसात शुरू हो गयी । लोग पत्थर बरसा रहे थे पर हलज के चेहरे पर कोई पीड़ा का भाव न आया । वो ऐसे ही खड़ा रहा जैसे कोई शहंशाह मंच पर खड़ा हो ।
खलीफा की नज़र शिबली पर पड़ी । वह कोई पत्थर न मार रहा था । खलीफा का क्रौध सातवें आसमान जा चढ़ा । तेज़ कदमों से शिबली के पास गया और कड़क आवाज़ में पूछा ," पत्थर क्यों नही मार रहे ? "
शिबली डर गया , वह पत्थर उठाने के लिए पीछे झाड़ी के पास गया , हृदय कांप उठा कि ," मारूं और वो भी अपने गुरु भाई को , जो कि बेकसूर है " । पर करता भी क्या ।
झाड़ी पर एक फूल लगा था । खलीफा की नज़र बचा कर उसने वो फूल तोड़ लिया और गीली मिटटी में लपेट कर हलज को दे मारा ।
मिट्टी में लिपटा फूल लगते ही हलज चीत्कार कर उठा । उसकी चीख निकली जैसे किसी ने भारी भरकम पत्थर उठा कर मारा हो ।
मिट्टी में लिपटे फूल पर से मिट्टी हट गयी और फूल सामने नज़र आ गया । सभी जल्लाद मुल्ला और क़ाज़ी हैरान हो गये कि कौड़े लगे , अनेकों पत्थर बरसे , पर हलज पर कोई असर न हुआ , पर एक फूल की चोट ! और चीख ?
मुल्ला और क़ाज़ी क्या जाने कि प्रेम क्या होता है ।
वे तो पाबन्द थे , शरीयत के ।
पत्थरों की चोट को सहने वाला एक फूल की चोट न सह सका । कारण , चोट खाने वाले के रोम रोम में उसी का वास था , रोम रोम में उसी का नूर चमक रहा था । और हर चोट उसी में बस रहे रब्ब ने अपने ऊपर ली । पर जब फूल मारा अपने गुरु भाई ने तो उसने अपने भीतर बैठे हुए को हट जाने को कह दिया कि कहीं मेरे गुरु भाई का मारा फूल मेरे मुर्शद को चोट न लगा दे । और वह चीत्कार कर उठा ।
पास खड़े जल्लादों और खलीफा ने पुछा ," क्यों चिल्ला रहा है ? अभी तक तो हंस रहा था , मुस्कुरा रहा था और एक फूल की चोट , और इतना चीखना , चिल्लाना , क्यों ? "
हलज ने जवाब में कहा ,"  पहले मारने वाले अनजान थे , उन्हें नही मालूम था कि वो क्या कर रहे हैं , पर , फूल मारने वाला तो मेरा हमराज़ था , मेरा अपना फकीरी भाई था , इसीलिए उसकी मारी चोट सही न गयी और चीख निकल गयी ।"
जिसने रब्ब से प्रेम किया अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया । गुरु का पूर्ण होना तो जरूरी है ही , पर शिष्य का पूर्ण होना भी जरूरी होता है ।
वो गुरु भी नसीब वाले होते हैं जिन्हें कोई पूर्ण शिष्य मिल जाता है । गुरु के वचनों को बहुत ही कम लोग हैं जो कि गौर से सुनते हैं । कुछ उँगलियों पर गिने जा सकने वाले ही गौर से सुनते हैं , बाकी तो अपनी अपनी मस्ती में मस्त बैठे हुए यही सोच रहे होते हैं कि कब सत्संग खत्म हो और यहाँ से उठें । मेरी अपनी भी यही दशा है , मैं किसी का उपहास नही कर रहा हूँ । अगर बुरा लगे तो क्षमां कर देना ।
आज बस इतना ही ------

धन्यवाद ।
Inder singh .

Thursday, September 11, 2014

Friendship ( मित्रता )

                                           मित्रता 

सुदामा , अति गरीब सुदामा , एक दिन अपनी बेबसी पर आंसू बहा रहा था । पत्नी ने सुदामा को रोते देखा , पास आकर बैठ गयी और बोली ," आप कई बार बताते हो कि कृष्ण आपके बाल सखा मित्र हैं , वो द्वारका के राजा हैं , द्वारिकाधीश कहलाते हैं वो , लोग कहते हैं कि वो भगवान है ।"
" हाँ हम बाल सखा मित्र हैं , गुरु संदीपन के आश्रम में हम साथ साथ पढ़े , बड़े हुए और अपने अपने घर जाकर अपने अपने काम में लग गये । समय आने पर वे द्वारकाधीश कहलाये और हम दरिद्री ।"
" आप उन्हें कभी मिले ? "
" नही ।"
" आप उन्हें एक बार मिलो तो शायद -----"
" नही , नही मित्र के पास कुछ मांगने नही जाना चाहिए , अपनी कद्र कम हो जाती है , मित्र के पास तो सिर्फ मिलने को ही जाना चाहिए ।" सुदामा ने जवाब दिया ।
" वो भगवान है , उसके दर्शन मात्र से ही हमारे दिन पलट जायेंगे , मेरा मन ऐसा ही कहता है ।"
" पर मेरा मन नही करता वहाँ जाने को " ।
" न जाने क्यों हम इतनी दरिद्रता में जीवन गुज़ार रहे है ?" सुदामा की पत्नी बोली ।
" हम एक ही गुरु के आश्रम में पढ़े , गुरु भाई भी कहलाते हैं , पर नसीब अपना अपना , माँ जनेंदी सत्त पुत्त , पर भाग न देंदी वंड " .
" आप एक बार जायो तो  " .
" कैसे जाऊं ? मित्र से मिलने को , वो भी खाली हाथ , इतने समय के बाद मित्र से मिलने जाऊं , अगर उसने न पहचाना तो ?"  सुदामा की शंका भी ठीक थी ।" अगर उसने न पहचाना तो वापिस आ जाना , वो भगवान है , उसके दर्शन मात्र का लाभ ही मिल जाएगा "
" पर , खाली हाथ ?" सुदामा ने पत्नी को टालने के लिए कह दिया । पर ब्राह्मणी ऐसी पीछे पढ़ी कि सुदामा तैयार हो ही गया ।
पत्नी आस पड़ोस के घरों से कुछ चावल इक्कट्ठे कर लायी , एक पोटली में बांधे और सुदामे को विदा किया ।
अब सुदामा बे मन होकर चल पड़ा द्वारिका की ओर । करता भी क्या चलने के इलावा और कुछ समझ ही न आया , ब्राह्मणी हाथ धोकर नही बल्कि नहा धोकर पीछे पड़ी हुई थी ।
सुदामा गाँव गाँव , नगर नगर होता हुआ , कई जंगलों और मैदानों को पार करता हुआ द्वारिका नगरी के प्रवेश द्वार पहुंच गया । द्वारिका में प्रवेश किया । वैभव शाली नगरी थी , चका चौंध थी चारों तरफ । सारा नगर ही धनवानों का नगर लग रहा था । वह सुकुचाता हुआ आगे बढ़ा , रास्ता पूछते हुए वह राज महल तक भी पहुंच गया । पर द्वारपाल से कुछ कहने की हिम्मत ही न हो सकी ।
मन ही मन सोचने लगा सुदामा " मुझे कौन अंदर जाने देगा , किसे कहूँ कि कृष्ण मेरा बाल सखा मित्र है , कौन मानेगा मेरी बात , मेरा यहाँ आना लगता है विफल ही हो गया , अगर बिना मिले वापिस चला गया तो घर पहुंच कर उसे क्या जवाब दूंगा , वो तो फिर पीछे पड़ जायेगी " .
" अब मुझे कौन मिलावेगा , अब क्या करे सुदामा ?"  यही सोचते हुए एक पेड़ की छाँव में बैठ गया ।
फिर थोड़ी देर बाद खुद को हिम्मत दी और द्वार तक पहुंच गया । द्वारपाल से कुछ कहने की हिम्मत न हो रही थी । द्वारपाल ने खुद ही पूछ लिया ," ऐ , क्या देख रहे हो ? जानते नही ,  ये राज भवन है ।
जायो यहाँ से ।"
" जी , कुछ कहूँ , आप सुनोगे ?"
" हाँ कहो ".
" मुझे कृष्ण से मिलना है "।
द्वारपाल ने समझा कि कोई राज कर्मचारिओं में से किसी कृष्ण को मिलना होगा ।
" कौन कृष्ण ?"
" जो राजा है न द्वारकाधीश ".
" चल चल यहाँ से । कुछ काम भी है , चला आया मुंह उठा के , वो राजा है , उनके पास तेरे जैसों के लिए समय नही है । चल भाग जा " .
"  आप उन्हें एक बार जाकर कहो तो , मैं उनका बाल सखा हूँ ।"
" बाल सखा !! तू और वो भी राजा का ?  राजाओं के बाल सखा भी राजकुमार होते हैं । तेरे जैसे नही । चला जा । "
" आप एक बार उनके पास मेरा संदेश तो पहुँचाओ वो मेरे बाल सखा हैं "।
कुछ सोचते हुए द्वारपाल ने सुदामा से उसका नाम पुछा और अंदर चला गया ।
महल में श्री कृष्ण रुक्मणी तथा अन्य रानीओं के साथ बैठे थे । द्वारपाल के द्वारा अंदर आने की आज्ञा मांगने पर उसे अंदर बुलाया गया ।
श्री कृष्ण ने आने का कारण पुछा । द्वारपाल ने बताया कि ," एक व्यक्ति आया है आपको मिलने के लिए जिद कर रहा है " ।
" कौन है ? "
  " शक्ल सूरत से तो ब्राह्मण लग रहा है , जनेऊ है उसके गले में ।"
" और " .
  " एक धोती पहनी है फटी सी ,
मैली सी , सिर पर पगड़ी नही
बदन पर कुछ नही ।
पाँव में जूती नही
ये निशानी है उसकी " ।
" नाम तो पुछा होगा ?"
" नाम ,,,, शायद , सुदामा बताया है "।
कान में सुदामा नाम सुनते ही श्री कृष्ण उछल पड़े और उठ कर भागे बाहर की और ।
पाँव में जूती नही पहनी , सर पर मोर मुकुट नही रखा और भागते हुए चले जा रहे हैं ।
दूसरी तरफ सुदामा ने इंतज़ार किया और भीतर से कोई जवाब भी न आया तो सुदामा वापिस चल दिया यह सोचते हुए कि  " सुदामा अब चल वापिस तेरा कोई नही , तू तो बदनसीब ही है , और बदनसीब ही रहेगा ।"
श्री कृष्ण द्वार पर पहुंचे , द्वार पर सुदामा न दिखा । द्वारपालों से पुछा "  जो मुझे मिलने आया था , वो मेरा मित्र था , कहाँ है वो ? "
उसका तो पता ही न था किसी को ।
श्री कृष्ण को नंगे पाँव , बिना मुकुट , बिना हाथ में बंसी कभी किसी ने न देखा था ।
श्री कृष्ण " सुदामा सुदामा " पुकारते हुए  सुदामा को दूंदने लगे ।
सारा नगर श्री कृष्ण को इस प्रकार से भागते देख हैरान था । आखिर श्री कृष्ण सुदामा तक पहुंच ही गये । श्री कृष्ण ने सुदामा को अपने गले से लगा लिया ।  दोनों मित्रों की आँखों से झर झर अश्रु धारा बहने लगी । सारे द्वारिका में आग की तरह श्री कृष्ण के बाल सखा मित्र के आगमन की खबर फ़ैल गयी । सारा द्वारिका ही मित्रों के मिलन को देखने राजमहल की तरफ चल पड़ा ।
महल में पहुंच कर श्री कृष्ण ने सुदामा को अपने आसन पर बैठाया और स्वयं नीचे जमीन पर बैठ गये । जल मंगवाया और स्वर्ण पात्र में सुदामा के चरणों को अपने हाथों से साफ़ किया ।
आवभगत के बाद श्री कृष्ण ने सभी परिवार वालों का हाल जाना । और पुछा ," सुदामा , भाभी ने मेरे लिए कुछ दिया होगा , कुछ भेजा होगा , कहाँ है वो ? अब सुदामा को वो चावल की पोटली याद आई जिसे उसने अपनी बगल में दबा रखा था । श्री कृष्ण के पूछने पर सुदामा ने पोटली को छुपाने की कौशिश की , शायद शर्म महसूस हो रही थी ।
पर श्री कृष्ण से कुछ छिपा न था ।
श्री कृष्ण ने हाथ आगे बढ़ा कर पोटली छीनते हुए कहा ," सुदामा , अभी तक मित्र से चोरी रखता है , अरे याद है न , एक बार गुरु माता के दिए भुने हुए चने अकेला ही खा गया था ।"
गुरु संदीपन के आश्रम में एक दिन गुरु माता ने सुदामा और कृष्ण को जंगल से लकड़ी काट कर लाने को कहा । दोनों मित्र जब चलने लगे तो गुरु माता ने एक पोटली में भुने चने बाँध कर देते हुए कहा कि" बच्चो , इसे अपने साथ ले जाओ , जब भूख लगे तो खा लेना ।वहाँ देर भी हो सकती है ।"
जंगल में लकड़ी काटते हुए मौसम ने पलती खाई और तेज़ आंधी के साथ बरसात शुरू हो गयी ।
दोनों मित्र एक पेड़ पर चढ़ कर बैठ गये । एक डाली पर श्री कृष्ण ओर एक डाली पर सुदामा बैठ गया । भूख दोनों को लगी हुई थी । सुदामा ने पोटली में देखा तो चने थोड़े ही थे । सुदामा ने थोड़े से चने निकाल कर मुंह में डाल लिए और चबाने लगा । चबाने से कट कट की आवाज़ हुई । कृष्ण जी ने पूछा " ये आवाज़ कैसी है ?"
सुदामा ने जवाब दिया " ठंड की वजह से दांत किटकिटा रहे हैं ।"
सुदामा को सब कुछ याद आ गया ।
श्री कृष्ण ने सुदामा से पोटली छीन कर खोला , उसमे चावल थे । श्री कृष्ण ने चावल खाने शुरू कर दिए । रुकमनी ने हाथ पकड़ लिया और कहा " लाओ मैं पका देती हूँ " . पर श्री कृष्ण ने मना कर दिया । और कहा ," इन कच्चे चावलों में जो स्वाद आ रहा है वो पकने के बाद कहाँ रहेगा ?"
" कच्चे चावल न खाओ , पेट दर्द होगा ।"
श्री कृष्ण ने बात अनसुनी कर दी और जब तक चावल खत्म न हो गये पोटली अपने हाथ से छोड़ी नही ।
श्री कृष्ण ने सुदामा को द्वारिका के अनेकों मन्दिरों के दर्शन करवाए , कई जगह साथ ले जा कर घुमाया । सुदामा को पहनने को राजसी वस्त्र दिए तथा अनेकों प्रकार से सेवा की । सुदामा कृष्ण के मित्र प्रेम को देख बहुत प्रसन्न हुआ ।
काफी दिन हो गये । अब सुदामा को अपने घर की तथा अपने परिवार की याद सताने लगी ।उसने कृष्ण से कई बार वापिस घर जाने की इच्छा जाहिर की पर कृष्ण ने यही कह कर रोक लिया कि अभी दिन ही कितने हुए हैं , थोड़े दिन और रुक जाओ ।
कृष्ण के प्रेम से किये आग्रह पर सुदामा कुछ बोल न पाता था ।
एक दिन सुदामा से रहा न गया , और उसने बड़े ही नम्रता पूर्वक विनती की , " हे मित्र , अब तो बहुत दिन हो गये , अब मुझे चलना ही होगा , न जाने परिवार किस हाल में होगा ।"
" सुदामा , मन तो नही करता तुम्हे विदा करूं , पर तुम परिवार , बच्चों और भाभी के बारे में कहते हो तो ------ " । श्री कृष्ण की आँखों में भी आंसू छलक आये ।
सुदामा मन ही मन सोचता है कि प्रेम तो बहुत किया है , आदर सत्कार में कोई कमी नही छोड़ी , अब विदा होने का समय है ,  अब शायद कुछ मदद स्वरूप कुछ दें ।
अगले दिन सुबह सुदामा चलने को तैयार हो रहा था । श्री कृष्ण आये , उनके हाथ में सुदामा की वही फटी धोती थी , सुदामा को देते हुए बोले , " ये
लो सुदामा , इसे पहन लो । और ये राजसी वस्त्रों को उतार दो "।
सुदामा ने राजसी वस्त्र उतार दिए और अपनी वही पुरानी फटी धोती पहन ली । राजसी जूती भी उतार कर रख दी ।
श्री कृष्ण सुदामा को साथ लेकर नगर के बाहर तक आये । उसे अपने गले से लगाया । सुदामा सोच रहा था कि मित्र ने प्रेम तो बहुत किया है , आवभगत भी अच्छी की है पर मेरी मदद करने की कोई बात नही की अबतक ।शायद सबसे छुपा कर करनी हो , इसी लिए नगर के बाहर तक आये हैं संग संग ।
नगर के बाहर आकर श्री कृष्ण बोले ," मन तो नही करता , पर तुम्हारा परिवार के पास जाना भी जरूरी है , सो अब तुम चलो । "
अब सुदामा चल पड़ा । श्री कृष्ण तब तक वहीं खड़े रहे जब तक सुदामा आँखों से ओझल न हो गया ।
और सुदामा भी चलते हुए पीछे मुड़ मुड़ देखता रहा अपने मित्र को । जब श्री कृष्ण का दिखाई देना बंद हो गया तो सुदामा ने अपनी चाल को तेज़ किया ।
सुदामा मन ही मन बहुत दुःख महसूस कर रहा था । कृष्ण मदद न करेंगे , ऐसी उम्मीद उसे बिलकुल न थी ।  सुदामा सोचता है कि , " अब उसे जाकर क्या मुख दिखाऊंगा जिस बेचारी ने मेरे मित्र से मदद की उम्मीद लगा रखी है । अब क्या कहूँगा कि मित्र ने कोई मदद नही की  । और मित्र भी ऐसा कि दो तीन मुट्ठी थी चावल की , वह भी छीन कर खा गया । खुद राजा और मुझ गरीब से चावल छीन कर खा लिए । अगर न खाता मेरे घर का एक समय का भोजन तो तैयार हो ही जाता । पर मेरी बद नसीबी कि एक वक्त की रोटी,  वो भी मैंने गवा ली । वो राजा , उसे क्या पता कि अभाव क्या होता है । वो क्या जाने गरीब के दुखों को , उसे क्या पता भूख क्या होती है । पहनने को दिए कपड़े भी उतरवा लिए उसने तो , मदद क्या करनी थी । "
अपनी बदनसीबी को कोसता हुआ सुदामा ने अपने कदम और तेज़ी से बढ़ाने शुरू कर दिए यह सोचते हुए अपने नसीबों में तो यही कुछ है ।चल अब क्या कोसना ।
कुछ दिन चलने के बाद सुदामा अपने गाँव के समीप पहुंच गया । वहाँ का नज़ारा ही बदला हुआ था । उसकी झोंपड़ी वहाँ न थी । किसी सेठ का महल खड़ा हुआ था । वो घबरा गया । और लगा अपनी झोंपड़ी को ढूँढने । उसने एक से पूछा , " यहाँ एक झोंपड़ी थी , वो लोग कहाँ चले गये ? "
इससे पहले कि वो जवाब देता उसी महल में से सेठानी बाहर आई , उसने सुदामा के पाँव छुए , सुदामा घबरा गया । सेठानी बोली ," मैं कहती थी न , कि आप जाओ कृष्ण के पास हमारे दिन पलट जायेंगे ।" सुदामा ने आवाज़ को पहचाना तो उसे महसूस हुआ कि यह तो अपनी ही पत्नी है । इतने में बच्चे भी बाहर आकर पिता जी पिता जी करते हुए सुदामा से लिपट गये ।
पत्नी उसे महल के भीतर ले गयी । महल भी किसी राजा के महल जैसा ही था । पत्नी बताया कि " जिस दिन आप वहाँ पहुंचे होवोगे आपके मित्र ने ये सब बनवाने को कारीगर तथा सभी साज़ ओ सामान भिजवा दिया था । उन्होंने जल्दी जल्दी से महल भी खड़ा कर दिया और देखो भीतर  , अब हमे कोई कमी नही है और न रहेगी । "
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आपने आज श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की इस कहानी को पढ़ा है । मुझे उम्मीद है कि आपको अच्छी लगी होगी । अगर अच्छी लगी है तो कमेंट जरूर लिखें । इसे अगर शेयर करना चाहें तो कर लें । ये जो आपने पढ़ा है , ये Adhyatm    www.goodreadersever.blogspot.com. का status update है । आप इस पेज पर भी जाएँ , आपको और भी काफी कुछ पढ़ने को मिलेगा । इस पेज पर आपको कुछ भी coppied एंड pasted नही मिलेगा । सभी रचनाएँ लेखक की अपनी ही होती हैं ।
आज बस इतना ही ।
धन्यवाद ।
Inder singh ( इंद्र सिंह )
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Sunday, August 31, 2014

prem hi bhakti hai . प्रेम ही भक्ति है ।

एक लडकी थी । त्रेता युग की बात है ये । नीच कुल में जन्म लिया था उसने ।थोड़ी बड़ी हुई , तो एक दिन दर्पण में उसने अपना चेहरा देखा ।तो उसे समझ में आया कि क्यों सभी उसे हीन दृष्टि से देखते हैं ।बेहद कुरूप थी वो ।अपने चेहरे को देख वह रुआंसी हो गयी । उसे उस समय समझ में आया कि क्यों उसके माता पिता उसे देख कर रोया करते थे । 
थोड़ी और बड़ी हुई , माता पिता को शादी की चिंता हुई और उसके लिए वर ढूंडा गया ।
शादी हुई और वह अपने घर पहुंच गयी ।
ससुराल पहुंच कर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा ।
जैसे ही सास ने मुहँ दिखाई की रस्म के लिए घूघंट हटाया , सभी खुश होने के स्थान पर -------- । पति ने उसी वक्त साथ रखने से इनकार कर दिया । पति बोला , " नही नही , इतनी बद सूरत !!!! नही , मुझे बिलकुल नही रखनी अपने साथ , इसे इसी वक्त वापिस भेज दो जहाँ से इसे लाया गया है । "
और पति ने  इनकार कर दिया अपनी पत्नी मानने से ।
लड़की को वापिस उसके माता - पिता के पास भेजा गया । माता पिता ने भी अपने घर में प्रवेश न दिया , कहा , " हमने तो अपनी जिम्मेदारी को पूरा कर दिया , बेटी को बड़ा किया और जिसकी अमानत थी उसे सौंप दिया । अब ये हमारी नही , जिसके साथ उसका पल्लू बाँधा , उसी की है ।"
सभी संबंधियों ने उसे जंगल में छोड़ने का फैसला किया और उसे जंगल में छोड़ दिया गया ।
उस जंगल में कुछ ऋषियों के निवास थे । सभी कुटिया बना कर रहते थे और अधिकतर समय जप तप , हवन तथा ध्यान इत्यादि में समय व्यतीत किया करते थे ।
वहाँ उसने सोचा कि उसने तो नीच कुल में जन्म लिया है । वह जंगल में भक्ति तो कर नही सकती । इस लिए उसे लगा कि उसे प्रभु ने इन महापुरुषों की सेवा का मौका दिया है ।
उसने जंगल में जाकर लम्बी लम्बी घास जो सूख चुकी थी को इक्कठा किया , उन्हें बाँधा और झाडू का रूप दिया । और एक दिन सुबह सुबह एक ऋषि की कुटिया के बाहर जाकर खड़ी हो गयी । ऋषि ने क्रोध भरी दृष्टि  से उसे देखा और फौरन दूर हो जाने को कहा ।
लड़की ने बहुत कहा कि वह सिर्फ सेवा के लिए आई है , उसे कुछ नही चाहिए । पर किसी ने भीतर प्रवेश न करने दिया ।
अब उस कुरूप लड़की ने जंगल में ही एक कुटिया बना ली और उसी में रहने लगी । वह जंगल से ही कुछ फल इत्यादि तोड़ कर और कभी कंद मूल इत्यादि से अपना गुज़र बसर करने लगी ।
कोई उसकी तरफ देखता तक न था , बात करना तो एक स्वप्न हो गया ।
एक दिन उसे पिछली जिन्दगी के कुछ क्षण याद आये , उसकी आँखे भर आईं । अपने नसीबों पर आंसू बहाते हुए सोचती है
" जाति से कमीनी हूँ मैं ,
पाति भी कमीनी मेरी ,
रूप रंग से भी हीनी मैं
हे प्रभु , को गुण न पल्ले मेरे
मैं किस गुण पे मान करूं ? "
पर एक ही गुण उसे प्रभु से मिला था जिसकी जानकारी उसे खुद को भी न थी । वो गुण था " प्रभु प्रेम " । प्रभु के प्रेम से ओत प्रोत थी वह । प्रभु रंग में पूरी तरह भीगी हुई थी वो , पर इस गुण की जान कारी उसे खुद को भी न थी ।
वह रोज़ाना ऋषिओं की कुटियाओं के आगे से गुज़रा करती थी ।
कई बार ऋषि आपस में प्रभु चर्चा भी कर रहे होते थे । एक दिन जब वह वहाँ से गुज़र रही थी तो उसने एक ऋषिवर को यह कहते सुना , " भगवान राम को वनवास होगा और एक दिन यहाँ से गुज़रेंगे , उस दिन हमे उनके दर्शन और सेवा का मौका मिलेगा ।" ये सुनते ही लड़की पुलकित हो उठी , उसका मन मयूर नाच उठा कि उसे भी भगवान राम के दर्शन का मोका मिलेगा । ये सुनते ही वो जल्दी जल्दी घर पहुंची । यह जब उसने सुना था तब उसकी उम्र सोलह के  करीब रही होगी । उस भोली को  शायद यह मालूम ही न था कि अभी तो राम जी का जन्म भी न हुआ था ।
सोचने लगी कि , " मैं कुरूप को कौन पूछेगा , कौन मैं बदनसीब को पास फटकने देगा । वो आएँगे , शायद मुझे भी उनके दर्शन का मौका मिल जाए , दूर दूर से ही सही । मैंने सुना था कभी कि वो अमीर और गरीब का या छूत अछूत का भेद नही रखते । मैं कैसे उनकी सेवा करूंगी और अगर वो अभी आ गये तो ? "
वो जल्दी से उठी घर से बाहर निकली और कुछ फल इत्यादि तोड़ कर अपनी कुटिया में ले आई । " अगर प्रभु अभी आ गये तो उन्हें खिलाऊँगी । "
फिर सोचने लगी कि " पता नही , कहीं ये फल फीके या कड़वे ही न हों ? " सोचती है कि " एक एक फल का स्वाद पहले मैं देखूँ और जो कड़वे या फीके हों उन्हें अलग कर दूं ।" पर उसके पास फलों को काटने का कोई इंतजाम न था । इस लिए उस भोली ने दांतों से एक छोटे से टुकड़े को काट कर उन सभी फलों के स्वाद का निरीक्षण किया । जो जो फल कड़वे या फीके लगे उन्हें फैंक दिया ।
उन फलों को उसने ढक कर रख दिया और जो झाडू उसने ऋषिओं के आश्रमों की साफ़ सफाई के लिए बनाया था को उठाया और रास्तों ( you are reading a blog post posted by inder singh )https://www.facebook.com/pages/Adhyatm/518222101645281 की सफाई शुरू कर दी कि न जाने कौन से रास्ते से भगवान आ जाएं ।
अब यह क्रम रोज़ का हो गया । वह रोज़ फल तोड़ती , उन्हें साफ़ करती , उनके स्वाद का निरिक्षण करती , संभाल कर रखती और झाडू से हर आने वाले मार्ग को साफ़ करती । यह क्रम उसने छोटी सी उम्र में शुरू किया और बुड़ापे तक करती रही जब तक भगवान आ न गये । इतनी लम्बी इंतज़ार उसने सिर्फ प्रभु के दीदार के लिए गुज़ार दी । और अगर हम होते तो कह देते , " भाड़ में जाए ये रोज़ की साफ़ सफाई , जब आना होगा तो एक दिन पहले खबर आ जाएगी , तब देखी जाएगी ।" और अगर आज का समय होता तो यही सोच लेते , " जब आना होगा , कोई तो फेसबुक पर लिख ही देगा " ।
और एक दिन उसकी इंतज़ार पूरी हुई , भगवान आ ही गये । इंतज़ार जब आरंभ हुई थी तो उसकी उम्र कोई सोलह बरस की रही होगी और जब इंतज़ार को रंग लगा तो सारे बाल पक चुके थे और उमर आखिरी पडाव पर थी । जब इंतज़ार आरंभ की थी तो राम जी का तो जन्म भी न हुआ था । ऋषिओं ने उनके स्वागत और आवभगत की पूरी तैयारी की हुई थी पर भगवान सीधे उस की कुटिया पर पहुंचे जो जाति से भील थी और सभी ऋषि उसे हीन दृष्टि से देखते थे ।
राम जी को अपने घर आया देख वह महिला जो हीन कुल में जन्मी थी के हर्ष का ठिकाना न रहा ।
उसे तो उम्मीद ही न थी कि भगवान उसके घर आ जाएंगे । उसकी आँखों से अश्रु धारा बहने लग गयी । यह उम्मीद तो ऋषिओं को भी न थी ।
भील महिला ने उन्हें बैठने को जगह दी और जो फल ( उस दिन उसे बेर मिले थे ) उसने इक्कठे किये थे आगे रख दिया । अभी उसने उन बेरों के स्वाद का निरिक्षण नही किया था , इस लिए एक एक बेर को दांत से काटती और भगवान को देती । भगवान ने एक बेर लक्ष्मण को देते हुए कहा , " लो भ्राता , ये  भक्त का प्रसाद है , भक्त के प्रेम का प्रसाद है । इसे तुम भी लो । देखो कितने प्रेम से दे रही है ।
पर लक्ष्मण ने उन बेरों को इस लिए मुंह में नही लिया क्यों कि भीलनी हर बेर को पहले दांत से काटती , उसके स्वाद का निरिक्षण करती और फिर भगवान को दे रही थी । लक्ष्मण को बुरा लग रहा था पर राम थे कि आनन्द पूर्वक ग्रहण कर रहे थे । लक्ष्मण ने भाई की आँख बचा कर पिछली तरफ फैंकता रहा ।
राम से कुछ छिपा तो था नही । राम जी ने मन में सोचा ," भक्त का प्रसाद था लक्ष्मण , तुमने ग्रहण नही किया ।  बहुत प्रेम से दे रही है और फिर इसने उपनी उम्र हमारी इंतज़ार में गुज़ार दी । मन ही मन कहते हैं कि लक्ष्मण ले लेते तो ठीक था , भक्त का प्रेम से दिया प्रसाद , लक्ष्मण तुमने उसकी भावना का आदर नही किया । सीधे हाथ ले लेते तो ठीक था , लेना तो तुम्हे पड़ेगा ही , बस अब इंतज़ार करो ।"
पिछली तरफ गिरते बेरों को कुछ पक्षिओं ने बीज सहित खा लिया । वे प्रवासी पक्षी थे । कहीं दूर से आये थे , किसी पहाड़ से  , वे पक्षी वापिस चले गये और वहाँ उनकी विष्ठा के साथ वे बीज निकले । उन बीजों से जो पौधे उगे , उनमे से प्रकाश निकला करता था क्योंकि उनमे भीलनी की भक्ति समाई हुई थी ।
धीरे धीरे सारा पहाड़ उन पौधों से भर गया । सारा पहाड़ हर वक्त प्रकाशमान रहता था ।
राम रावण युद्ध में जब लक्ष्मण मूर्छित हुए तो वही भक्त का प्रसाद ( संजीवनी बूटी ) लक्ष्मण को खिलाई गयी ।अगर सीधे हाथ भक्त का प्रसाद ले लेते तो प्रकृति को ये भक्त का प्रसाद खिलाने का इंतज़ाम न करना पढ़ता ।
आज बस इतना ही ।

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Inder singh ( इंद्र सिंह )
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क्या इतनी लम्बी इंतज़ार हमसे हो सकती है ? हमसे दो ढाई घंटे की भजन बन्दगी तो होती नही , इतना लम्बा इंतज़ार कैसे होगा , ये एक सोचने का विषय है ।