Thursday, September 11, 2014

Friendship ( मित्रता )

                                           मित्रता 

सुदामा , अति गरीब सुदामा , एक दिन अपनी बेबसी पर आंसू बहा रहा था । पत्नी ने सुदामा को रोते देखा , पास आकर बैठ गयी और बोली ," आप कई बार बताते हो कि कृष्ण आपके बाल सखा मित्र हैं , वो द्वारका के राजा हैं , द्वारिकाधीश कहलाते हैं वो , लोग कहते हैं कि वो भगवान है ।"
" हाँ हम बाल सखा मित्र हैं , गुरु संदीपन के आश्रम में हम साथ साथ पढ़े , बड़े हुए और अपने अपने घर जाकर अपने अपने काम में लग गये । समय आने पर वे द्वारकाधीश कहलाये और हम दरिद्री ।"
" आप उन्हें कभी मिले ? "
" नही ।"
" आप उन्हें एक बार मिलो तो शायद -----"
" नही , नही मित्र के पास कुछ मांगने नही जाना चाहिए , अपनी कद्र कम हो जाती है , मित्र के पास तो सिर्फ मिलने को ही जाना चाहिए ।" सुदामा ने जवाब दिया ।
" वो भगवान है , उसके दर्शन मात्र से ही हमारे दिन पलट जायेंगे , मेरा मन ऐसा ही कहता है ।"
" पर मेरा मन नही करता वहाँ जाने को " ।
" न जाने क्यों हम इतनी दरिद्रता में जीवन गुज़ार रहे है ?" सुदामा की पत्नी बोली ।
" हम एक ही गुरु के आश्रम में पढ़े , गुरु भाई भी कहलाते हैं , पर नसीब अपना अपना , माँ जनेंदी सत्त पुत्त , पर भाग न देंदी वंड " .
" आप एक बार जायो तो  " .
" कैसे जाऊं ? मित्र से मिलने को , वो भी खाली हाथ , इतने समय के बाद मित्र से मिलने जाऊं , अगर उसने न पहचाना तो ?"  सुदामा की शंका भी ठीक थी ।" अगर उसने न पहचाना तो वापिस आ जाना , वो भगवान है , उसके दर्शन मात्र का लाभ ही मिल जाएगा "
" पर , खाली हाथ ?" सुदामा ने पत्नी को टालने के लिए कह दिया । पर ब्राह्मणी ऐसी पीछे पढ़ी कि सुदामा तैयार हो ही गया ।
पत्नी आस पड़ोस के घरों से कुछ चावल इक्कट्ठे कर लायी , एक पोटली में बांधे और सुदामे को विदा किया ।
अब सुदामा बे मन होकर चल पड़ा द्वारिका की ओर । करता भी क्या चलने के इलावा और कुछ समझ ही न आया , ब्राह्मणी हाथ धोकर नही बल्कि नहा धोकर पीछे पड़ी हुई थी ।
सुदामा गाँव गाँव , नगर नगर होता हुआ , कई जंगलों और मैदानों को पार करता हुआ द्वारिका नगरी के प्रवेश द्वार पहुंच गया । द्वारिका में प्रवेश किया । वैभव शाली नगरी थी , चका चौंध थी चारों तरफ । सारा नगर ही धनवानों का नगर लग रहा था । वह सुकुचाता हुआ आगे बढ़ा , रास्ता पूछते हुए वह राज महल तक भी पहुंच गया । पर द्वारपाल से कुछ कहने की हिम्मत ही न हो सकी ।
मन ही मन सोचने लगा सुदामा " मुझे कौन अंदर जाने देगा , किसे कहूँ कि कृष्ण मेरा बाल सखा मित्र है , कौन मानेगा मेरी बात , मेरा यहाँ आना लगता है विफल ही हो गया , अगर बिना मिले वापिस चला गया तो घर पहुंच कर उसे क्या जवाब दूंगा , वो तो फिर पीछे पड़ जायेगी " .
" अब मुझे कौन मिलावेगा , अब क्या करे सुदामा ?"  यही सोचते हुए एक पेड़ की छाँव में बैठ गया ।
फिर थोड़ी देर बाद खुद को हिम्मत दी और द्वार तक पहुंच गया । द्वारपाल से कुछ कहने की हिम्मत न हो रही थी । द्वारपाल ने खुद ही पूछ लिया ," ऐ , क्या देख रहे हो ? जानते नही ,  ये राज भवन है ।
जायो यहाँ से ।"
" जी , कुछ कहूँ , आप सुनोगे ?"
" हाँ कहो ".
" मुझे कृष्ण से मिलना है "।
द्वारपाल ने समझा कि कोई राज कर्मचारिओं में से किसी कृष्ण को मिलना होगा ।
" कौन कृष्ण ?"
" जो राजा है न द्वारकाधीश ".
" चल चल यहाँ से । कुछ काम भी है , चला आया मुंह उठा के , वो राजा है , उनके पास तेरे जैसों के लिए समय नही है । चल भाग जा " .
"  आप उन्हें एक बार जाकर कहो तो , मैं उनका बाल सखा हूँ ।"
" बाल सखा !! तू और वो भी राजा का ?  राजाओं के बाल सखा भी राजकुमार होते हैं । तेरे जैसे नही । चला जा । "
" आप एक बार उनके पास मेरा संदेश तो पहुँचाओ वो मेरे बाल सखा हैं "।
कुछ सोचते हुए द्वारपाल ने सुदामा से उसका नाम पुछा और अंदर चला गया ।
महल में श्री कृष्ण रुक्मणी तथा अन्य रानीओं के साथ बैठे थे । द्वारपाल के द्वारा अंदर आने की आज्ञा मांगने पर उसे अंदर बुलाया गया ।
श्री कृष्ण ने आने का कारण पुछा । द्वारपाल ने बताया कि ," एक व्यक्ति आया है आपको मिलने के लिए जिद कर रहा है " ।
" कौन है ? "
  " शक्ल सूरत से तो ब्राह्मण लग रहा है , जनेऊ है उसके गले में ।"
" और " .
  " एक धोती पहनी है फटी सी ,
मैली सी , सिर पर पगड़ी नही
बदन पर कुछ नही ।
पाँव में जूती नही
ये निशानी है उसकी " ।
" नाम तो पुछा होगा ?"
" नाम ,,,, शायद , सुदामा बताया है "।
कान में सुदामा नाम सुनते ही श्री कृष्ण उछल पड़े और उठ कर भागे बाहर की और ।
पाँव में जूती नही पहनी , सर पर मोर मुकुट नही रखा और भागते हुए चले जा रहे हैं ।
दूसरी तरफ सुदामा ने इंतज़ार किया और भीतर से कोई जवाब भी न आया तो सुदामा वापिस चल दिया यह सोचते हुए कि  " सुदामा अब चल वापिस तेरा कोई नही , तू तो बदनसीब ही है , और बदनसीब ही रहेगा ।"
श्री कृष्ण द्वार पर पहुंचे , द्वार पर सुदामा न दिखा । द्वारपालों से पुछा "  जो मुझे मिलने आया था , वो मेरा मित्र था , कहाँ है वो ? "
उसका तो पता ही न था किसी को ।
श्री कृष्ण को नंगे पाँव , बिना मुकुट , बिना हाथ में बंसी कभी किसी ने न देखा था ।
श्री कृष्ण " सुदामा सुदामा " पुकारते हुए  सुदामा को दूंदने लगे ।
सारा नगर श्री कृष्ण को इस प्रकार से भागते देख हैरान था । आखिर श्री कृष्ण सुदामा तक पहुंच ही गये । श्री कृष्ण ने सुदामा को अपने गले से लगा लिया ।  दोनों मित्रों की आँखों से झर झर अश्रु धारा बहने लगी । सारे द्वारिका में आग की तरह श्री कृष्ण के बाल सखा मित्र के आगमन की खबर फ़ैल गयी । सारा द्वारिका ही मित्रों के मिलन को देखने राजमहल की तरफ चल पड़ा ।
महल में पहुंच कर श्री कृष्ण ने सुदामा को अपने आसन पर बैठाया और स्वयं नीचे जमीन पर बैठ गये । जल मंगवाया और स्वर्ण पात्र में सुदामा के चरणों को अपने हाथों से साफ़ किया ।
आवभगत के बाद श्री कृष्ण ने सभी परिवार वालों का हाल जाना । और पुछा ," सुदामा , भाभी ने मेरे लिए कुछ दिया होगा , कुछ भेजा होगा , कहाँ है वो ? अब सुदामा को वो चावल की पोटली याद आई जिसे उसने अपनी बगल में दबा रखा था । श्री कृष्ण के पूछने पर सुदामा ने पोटली को छुपाने की कौशिश की , शायद शर्म महसूस हो रही थी ।
पर श्री कृष्ण से कुछ छिपा न था ।
श्री कृष्ण ने हाथ आगे बढ़ा कर पोटली छीनते हुए कहा ," सुदामा , अभी तक मित्र से चोरी रखता है , अरे याद है न , एक बार गुरु माता के दिए भुने हुए चने अकेला ही खा गया था ।"
गुरु संदीपन के आश्रम में एक दिन गुरु माता ने सुदामा और कृष्ण को जंगल से लकड़ी काट कर लाने को कहा । दोनों मित्र जब चलने लगे तो गुरु माता ने एक पोटली में भुने चने बाँध कर देते हुए कहा कि" बच्चो , इसे अपने साथ ले जाओ , जब भूख लगे तो खा लेना ।वहाँ देर भी हो सकती है ।"
जंगल में लकड़ी काटते हुए मौसम ने पलती खाई और तेज़ आंधी के साथ बरसात शुरू हो गयी ।
दोनों मित्र एक पेड़ पर चढ़ कर बैठ गये । एक डाली पर श्री कृष्ण ओर एक डाली पर सुदामा बैठ गया । भूख दोनों को लगी हुई थी । सुदामा ने पोटली में देखा तो चने थोड़े ही थे । सुदामा ने थोड़े से चने निकाल कर मुंह में डाल लिए और चबाने लगा । चबाने से कट कट की आवाज़ हुई । कृष्ण जी ने पूछा " ये आवाज़ कैसी है ?"
सुदामा ने जवाब दिया " ठंड की वजह से दांत किटकिटा रहे हैं ।"
सुदामा को सब कुछ याद आ गया ।
श्री कृष्ण ने सुदामा से पोटली छीन कर खोला , उसमे चावल थे । श्री कृष्ण ने चावल खाने शुरू कर दिए । रुकमनी ने हाथ पकड़ लिया और कहा " लाओ मैं पका देती हूँ " . पर श्री कृष्ण ने मना कर दिया । और कहा ," इन कच्चे चावलों में जो स्वाद आ रहा है वो पकने के बाद कहाँ रहेगा ?"
" कच्चे चावल न खाओ , पेट दर्द होगा ।"
श्री कृष्ण ने बात अनसुनी कर दी और जब तक चावल खत्म न हो गये पोटली अपने हाथ से छोड़ी नही ।
श्री कृष्ण ने सुदामा को द्वारिका के अनेकों मन्दिरों के दर्शन करवाए , कई जगह साथ ले जा कर घुमाया । सुदामा को पहनने को राजसी वस्त्र दिए तथा अनेकों प्रकार से सेवा की । सुदामा कृष्ण के मित्र प्रेम को देख बहुत प्रसन्न हुआ ।
काफी दिन हो गये । अब सुदामा को अपने घर की तथा अपने परिवार की याद सताने लगी ।उसने कृष्ण से कई बार वापिस घर जाने की इच्छा जाहिर की पर कृष्ण ने यही कह कर रोक लिया कि अभी दिन ही कितने हुए हैं , थोड़े दिन और रुक जाओ ।
कृष्ण के प्रेम से किये आग्रह पर सुदामा कुछ बोल न पाता था ।
एक दिन सुदामा से रहा न गया , और उसने बड़े ही नम्रता पूर्वक विनती की , " हे मित्र , अब तो बहुत दिन हो गये , अब मुझे चलना ही होगा , न जाने परिवार किस हाल में होगा ।"
" सुदामा , मन तो नही करता तुम्हे विदा करूं , पर तुम परिवार , बच्चों और भाभी के बारे में कहते हो तो ------ " । श्री कृष्ण की आँखों में भी आंसू छलक आये ।
सुदामा मन ही मन सोचता है कि प्रेम तो बहुत किया है , आदर सत्कार में कोई कमी नही छोड़ी , अब विदा होने का समय है ,  अब शायद कुछ मदद स्वरूप कुछ दें ।
अगले दिन सुबह सुदामा चलने को तैयार हो रहा था । श्री कृष्ण आये , उनके हाथ में सुदामा की वही फटी धोती थी , सुदामा को देते हुए बोले , " ये
लो सुदामा , इसे पहन लो । और ये राजसी वस्त्रों को उतार दो "।
सुदामा ने राजसी वस्त्र उतार दिए और अपनी वही पुरानी फटी धोती पहन ली । राजसी जूती भी उतार कर रख दी ।
श्री कृष्ण सुदामा को साथ लेकर नगर के बाहर तक आये । उसे अपने गले से लगाया । सुदामा सोच रहा था कि मित्र ने प्रेम तो बहुत किया है , आवभगत भी अच्छी की है पर मेरी मदद करने की कोई बात नही की अबतक ।शायद सबसे छुपा कर करनी हो , इसी लिए नगर के बाहर तक आये हैं संग संग ।
नगर के बाहर आकर श्री कृष्ण बोले ," मन तो नही करता , पर तुम्हारा परिवार के पास जाना भी जरूरी है , सो अब तुम चलो । "
अब सुदामा चल पड़ा । श्री कृष्ण तब तक वहीं खड़े रहे जब तक सुदामा आँखों से ओझल न हो गया ।
और सुदामा भी चलते हुए पीछे मुड़ मुड़ देखता रहा अपने मित्र को । जब श्री कृष्ण का दिखाई देना बंद हो गया तो सुदामा ने अपनी चाल को तेज़ किया ।
सुदामा मन ही मन बहुत दुःख महसूस कर रहा था । कृष्ण मदद न करेंगे , ऐसी उम्मीद उसे बिलकुल न थी ।  सुदामा सोचता है कि , " अब उसे जाकर क्या मुख दिखाऊंगा जिस बेचारी ने मेरे मित्र से मदद की उम्मीद लगा रखी है । अब क्या कहूँगा कि मित्र ने कोई मदद नही की  । और मित्र भी ऐसा कि दो तीन मुट्ठी थी चावल की , वह भी छीन कर खा गया । खुद राजा और मुझ गरीब से चावल छीन कर खा लिए । अगर न खाता मेरे घर का एक समय का भोजन तो तैयार हो ही जाता । पर मेरी बद नसीबी कि एक वक्त की रोटी,  वो भी मैंने गवा ली । वो राजा , उसे क्या पता कि अभाव क्या होता है । वो क्या जाने गरीब के दुखों को , उसे क्या पता भूख क्या होती है । पहनने को दिए कपड़े भी उतरवा लिए उसने तो , मदद क्या करनी थी । "
अपनी बदनसीबी को कोसता हुआ सुदामा ने अपने कदम और तेज़ी से बढ़ाने शुरू कर दिए यह सोचते हुए अपने नसीबों में तो यही कुछ है ।चल अब क्या कोसना ।
कुछ दिन चलने के बाद सुदामा अपने गाँव के समीप पहुंच गया । वहाँ का नज़ारा ही बदला हुआ था । उसकी झोंपड़ी वहाँ न थी । किसी सेठ का महल खड़ा हुआ था । वो घबरा गया । और लगा अपनी झोंपड़ी को ढूँढने । उसने एक से पूछा , " यहाँ एक झोंपड़ी थी , वो लोग कहाँ चले गये ? "
इससे पहले कि वो जवाब देता उसी महल में से सेठानी बाहर आई , उसने सुदामा के पाँव छुए , सुदामा घबरा गया । सेठानी बोली ," मैं कहती थी न , कि आप जाओ कृष्ण के पास हमारे दिन पलट जायेंगे ।" सुदामा ने आवाज़ को पहचाना तो उसे महसूस हुआ कि यह तो अपनी ही पत्नी है । इतने में बच्चे भी बाहर आकर पिता जी पिता जी करते हुए सुदामा से लिपट गये ।
पत्नी उसे महल के भीतर ले गयी । महल भी किसी राजा के महल जैसा ही था । पत्नी बताया कि " जिस दिन आप वहाँ पहुंचे होवोगे आपके मित्र ने ये सब बनवाने को कारीगर तथा सभी साज़ ओ सामान भिजवा दिया था । उन्होंने जल्दी जल्दी से महल भी खड़ा कर दिया और देखो भीतर  , अब हमे कोई कमी नही है और न रहेगी । "
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धन्यवाद ।
Inder singh ( इंद्र सिंह )
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