Saturday, September 27, 2014

zulm ( ज़ुल्म )

#अध्यात्म 


मुल्ला काजियाँ सानू संगसार कीता
सानू पीड़              जरा न होई ।
मेरे सजन   आन इक फुल्ल मारिया
मेरी रूह            अम्ब्रां तक रोई ।
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यह जो आपने पढ़ा है । यह पंजाबी में है ।
इसका भाव इस प्रकार है ----

मुल्ला एवम काजी के आदेश अनुसार मुझे  संगसार किया गया ।
मुझे , मुझे जरा दर्द न हुई ।
पर जब मेरे अपने ने आकर पत्थर की जगह फूल दे मारा तो मेरी रूह आसमानों तक रोई ।

यह किसी कवि या शायर की रचना है ।
आज इसी पर लिखने का मन है ।
कट्टर लोगों के जुल्मों से इतिहास भरा पड़ा है ।
कट्टर लोगों द्वारा सताये गये में लोगों एक नाम ' हलज ' भी है ।
हलज को बगदाद के कैदखाने में रखा गया था ।
कसूर सिर्फ इतना था कि वे एक पूर्ण संत सतगुरु में विशवास रखते थे ।
उन्हें क़ाज़ी द्वारा संगसार ( पत्थर तब तक मारना जब तक कि मृत्यु न हो जाए । ) करने का हुक्म सुनाया गया था ।
जिस दिन सज़ा का दिन आया उन्हें कैद खाने से निकाल कर बाहर खुले मैदान की तरफ ले जाया जा रहा था । सामने से ही एक उनका अपना गुरु भाई जिसका नाम शिबली था , दिखा ।
अपने गुरु भाई को देखा , आँखों ही आँखों में कह दिया हलज ने कि राज़ी हूँ उसी में जिसमें मुर्शद की रज़ा ।
शिबली ने देखा कि उसका फकीरी ( गुरु ) भाई तीस भारी भरकम जंज़ीरों में बंधा हुआ , बेखौफ शाही और मस्तानी चाल से उसी मैदान की तरफ जा रहा था जहाँ थोड़ी ही देर में उसे संगसार किया जाना था । शिबली भी पीछे पीछे चल दिया । मैदान में एक ऊंचे मंच पर हलज को चढ़ाया गया ।
चारों तरफ भीड़ थी , सभी चिल्ला रहे थे , " मार दो , काफिर है " ।
मंच पर जल्लाद हाथों में तलवारें और कौड़े लिए खड़े थे । खलीफा ने सज़ा सुनाई , " तीन सौ कौड़े मारे जाएँ " ।
सज़ा सुन लेने के बाद भी हलज़ विचलित नही हुआ । कौड़े बरसने लग गये , चमड़ी उखड़ उखड़ कर जगह जगह से लटक रही थी , पर हलज़ के चेहरे पर कोई शिकन न थी । वह मंद मंद मुस्कान के साथ इस ज़ुल्म को सहे जा रहा था , गुरु का प्रेम उसे होंसला जो दे रहा था । पर उसका गुरु भाई शिबली , उसकी रूह कांप रही थी इस ज़ुल्म को देखते हुए । पर वो कर भी क्या सकता था ।
तीन सौ कौड़े पूरे हो गये , पर हलज के चेहरे की मुस्कान कम न हुई । सारी कायनात शायद रोई होगी उस दिन पर हलज पर कोई असर न हुआ ।
अब अगला हुक्म हुआ ," संगसार कर दो " ।
मंच पर केवल हलज के सिवा अब कोई न था । सभी नीचे उतर गये ।
अब पत्थरों की बरसात शुरू हो गयी । लोग पत्थर बरसा रहे थे पर हलज के चेहरे पर कोई पीड़ा का भाव न आया । वो ऐसे ही खड़ा रहा जैसे कोई शहंशाह मंच पर खड़ा हो ।
खलीफा की नज़र शिबली पर पड़ी । वह कोई पत्थर न मार रहा था । खलीफा का क्रौध सातवें आसमान जा चढ़ा । तेज़ कदमों से शिबली के पास गया और कड़क आवाज़ में पूछा ," पत्थर क्यों नही मार रहे ? "
शिबली डर गया , वह पत्थर उठाने के लिए पीछे झाड़ी के पास गया , हृदय कांप उठा कि ," मारूं और वो भी अपने गुरु भाई को , जो कि बेकसूर है " । पर करता भी क्या ।
झाड़ी पर एक फूल लगा था । खलीफा की नज़र बचा कर उसने वो फूल तोड़ लिया और गीली मिटटी में लपेट कर हलज को दे मारा ।
मिट्टी में लिपटा फूल लगते ही हलज चीत्कार कर उठा । उसकी चीख निकली जैसे किसी ने भारी भरकम पत्थर उठा कर मारा हो ।
मिट्टी में लिपटे फूल पर से मिट्टी हट गयी और फूल सामने नज़र आ गया । सभी जल्लाद मुल्ला और क़ाज़ी हैरान हो गये कि कौड़े लगे , अनेकों पत्थर बरसे , पर हलज पर कोई असर न हुआ , पर एक फूल की चोट ! और चीख ?
मुल्ला और क़ाज़ी क्या जाने कि प्रेम क्या होता है ।
वे तो पाबन्द थे , शरीयत के ।
पत्थरों की चोट को सहने वाला एक फूल की चोट न सह सका । कारण , चोट खाने वाले के रोम रोम में उसी का वास था , रोम रोम में उसी का नूर चमक रहा था । और हर चोट उसी में बस रहे रब्ब ने अपने ऊपर ली । पर जब फूल मारा अपने गुरु भाई ने तो उसने अपने भीतर बैठे हुए को हट जाने को कह दिया कि कहीं मेरे गुरु भाई का मारा फूल मेरे मुर्शद को चोट न लगा दे । और वह चीत्कार कर उठा ।
पास खड़े जल्लादों और खलीफा ने पुछा ," क्यों चिल्ला रहा है ? अभी तक तो हंस रहा था , मुस्कुरा रहा था और एक फूल की चोट , और इतना चीखना , चिल्लाना , क्यों ? "
हलज ने जवाब में कहा ,"  पहले मारने वाले अनजान थे , उन्हें नही मालूम था कि वो क्या कर रहे हैं , पर , फूल मारने वाला तो मेरा हमराज़ था , मेरा अपना फकीरी भाई था , इसीलिए उसकी मारी चोट सही न गयी और चीख निकल गयी ।"
जिसने रब्ब से प्रेम किया अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया । गुरु का पूर्ण होना तो जरूरी है ही , पर शिष्य का पूर्ण होना भी जरूरी होता है ।
वो गुरु भी नसीब वाले होते हैं जिन्हें कोई पूर्ण शिष्य मिल जाता है । गुरु के वचनों को बहुत ही कम लोग हैं जो कि गौर से सुनते हैं । कुछ उँगलियों पर गिने जा सकने वाले ही गौर से सुनते हैं , बाकी तो अपनी अपनी मस्ती में मस्त बैठे हुए यही सोच रहे होते हैं कि कब सत्संग खत्म हो और यहाँ से उठें । मेरी अपनी भी यही दशा है , मैं किसी का उपहास नही कर रहा हूँ । अगर बुरा लगे तो क्षमां कर देना ।
आज बस इतना ही ------

धन्यवाद ।
Inder singh .

4 comments:

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    1. धन्यवाद himmat ram जी ।

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  3. प्रणाम श्री इन्दर सिंह जी बड़ी ही मार्मिक कहानी है बिल्कुल मंसूर और मंसूर के फकीरी भाई हसन के जैसी

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