Sunday, August 31, 2014

prem hi bhakti hai . प्रेम ही भक्ति है ।

एक लडकी थी । त्रेता युग की बात है ये । नीच कुल में जन्म लिया था उसने ।थोड़ी बड़ी हुई , तो एक दिन दर्पण में उसने अपना चेहरा देखा ।तो उसे समझ में आया कि क्यों सभी उसे हीन दृष्टि से देखते हैं ।बेहद कुरूप थी वो ।अपने चेहरे को देख वह रुआंसी हो गयी । उसे उस समय समझ में आया कि क्यों उसके माता पिता उसे देख कर रोया करते थे । 
थोड़ी और बड़ी हुई , माता पिता को शादी की चिंता हुई और उसके लिए वर ढूंडा गया ।
शादी हुई और वह अपने घर पहुंच गयी ।
ससुराल पहुंच कर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा ।
जैसे ही सास ने मुहँ दिखाई की रस्म के लिए घूघंट हटाया , सभी खुश होने के स्थान पर -------- । पति ने उसी वक्त साथ रखने से इनकार कर दिया । पति बोला , " नही नही , इतनी बद सूरत !!!! नही , मुझे बिलकुल नही रखनी अपने साथ , इसे इसी वक्त वापिस भेज दो जहाँ से इसे लाया गया है । "
और पति ने  इनकार कर दिया अपनी पत्नी मानने से ।
लड़की को वापिस उसके माता - पिता के पास भेजा गया । माता पिता ने भी अपने घर में प्रवेश न दिया , कहा , " हमने तो अपनी जिम्मेदारी को पूरा कर दिया , बेटी को बड़ा किया और जिसकी अमानत थी उसे सौंप दिया । अब ये हमारी नही , जिसके साथ उसका पल्लू बाँधा , उसी की है ।"
सभी संबंधियों ने उसे जंगल में छोड़ने का फैसला किया और उसे जंगल में छोड़ दिया गया ।
उस जंगल में कुछ ऋषियों के निवास थे । सभी कुटिया बना कर रहते थे और अधिकतर समय जप तप , हवन तथा ध्यान इत्यादि में समय व्यतीत किया करते थे ।
वहाँ उसने सोचा कि उसने तो नीच कुल में जन्म लिया है । वह जंगल में भक्ति तो कर नही सकती । इस लिए उसे लगा कि उसे प्रभु ने इन महापुरुषों की सेवा का मौका दिया है ।
उसने जंगल में जाकर लम्बी लम्बी घास जो सूख चुकी थी को इक्कठा किया , उन्हें बाँधा और झाडू का रूप दिया । और एक दिन सुबह सुबह एक ऋषि की कुटिया के बाहर जाकर खड़ी हो गयी । ऋषि ने क्रोध भरी दृष्टि  से उसे देखा और फौरन दूर हो जाने को कहा ।
लड़की ने बहुत कहा कि वह सिर्फ सेवा के लिए आई है , उसे कुछ नही चाहिए । पर किसी ने भीतर प्रवेश न करने दिया ।
अब उस कुरूप लड़की ने जंगल में ही एक कुटिया बना ली और उसी में रहने लगी । वह जंगल से ही कुछ फल इत्यादि तोड़ कर और कभी कंद मूल इत्यादि से अपना गुज़र बसर करने लगी ।
कोई उसकी तरफ देखता तक न था , बात करना तो एक स्वप्न हो गया ।
एक दिन उसे पिछली जिन्दगी के कुछ क्षण याद आये , उसकी आँखे भर आईं । अपने नसीबों पर आंसू बहाते हुए सोचती है
" जाति से कमीनी हूँ मैं ,
पाति भी कमीनी मेरी ,
रूप रंग से भी हीनी मैं
हे प्रभु , को गुण न पल्ले मेरे
मैं किस गुण पे मान करूं ? "
पर एक ही गुण उसे प्रभु से मिला था जिसकी जानकारी उसे खुद को भी न थी । वो गुण था " प्रभु प्रेम " । प्रभु के प्रेम से ओत प्रोत थी वह । प्रभु रंग में पूरी तरह भीगी हुई थी वो , पर इस गुण की जान कारी उसे खुद को भी न थी ।
वह रोज़ाना ऋषिओं की कुटियाओं के आगे से गुज़रा करती थी ।
कई बार ऋषि आपस में प्रभु चर्चा भी कर रहे होते थे । एक दिन जब वह वहाँ से गुज़र रही थी तो उसने एक ऋषिवर को यह कहते सुना , " भगवान राम को वनवास होगा और एक दिन यहाँ से गुज़रेंगे , उस दिन हमे उनके दर्शन और सेवा का मौका मिलेगा ।" ये सुनते ही लड़की पुलकित हो उठी , उसका मन मयूर नाच उठा कि उसे भी भगवान राम के दर्शन का मोका मिलेगा । ये सुनते ही वो जल्दी जल्दी घर पहुंची । यह जब उसने सुना था तब उसकी उम्र सोलह के  करीब रही होगी । उस भोली को  शायद यह मालूम ही न था कि अभी तो राम जी का जन्म भी न हुआ था ।
सोचने लगी कि , " मैं कुरूप को कौन पूछेगा , कौन मैं बदनसीब को पास फटकने देगा । वो आएँगे , शायद मुझे भी उनके दर्शन का मौका मिल जाए , दूर दूर से ही सही । मैंने सुना था कभी कि वो अमीर और गरीब का या छूत अछूत का भेद नही रखते । मैं कैसे उनकी सेवा करूंगी और अगर वो अभी आ गये तो ? "
वो जल्दी से उठी घर से बाहर निकली और कुछ फल इत्यादि तोड़ कर अपनी कुटिया में ले आई । " अगर प्रभु अभी आ गये तो उन्हें खिलाऊँगी । "
फिर सोचने लगी कि " पता नही , कहीं ये फल फीके या कड़वे ही न हों ? " सोचती है कि " एक एक फल का स्वाद पहले मैं देखूँ और जो कड़वे या फीके हों उन्हें अलग कर दूं ।" पर उसके पास फलों को काटने का कोई इंतजाम न था । इस लिए उस भोली ने दांतों से एक छोटे से टुकड़े को काट कर उन सभी फलों के स्वाद का निरीक्षण किया । जो जो फल कड़वे या फीके लगे उन्हें फैंक दिया ।
उन फलों को उसने ढक कर रख दिया और जो झाडू उसने ऋषिओं के आश्रमों की साफ़ सफाई के लिए बनाया था को उठाया और रास्तों ( you are reading a blog post posted by inder singh )https://www.facebook.com/pages/Adhyatm/518222101645281 की सफाई शुरू कर दी कि न जाने कौन से रास्ते से भगवान आ जाएं ।
अब यह क्रम रोज़ का हो गया । वह रोज़ फल तोड़ती , उन्हें साफ़ करती , उनके स्वाद का निरिक्षण करती , संभाल कर रखती और झाडू से हर आने वाले मार्ग को साफ़ करती । यह क्रम उसने छोटी सी उम्र में शुरू किया और बुड़ापे तक करती रही जब तक भगवान आ न गये । इतनी लम्बी इंतज़ार उसने सिर्फ प्रभु के दीदार के लिए गुज़ार दी । और अगर हम होते तो कह देते , " भाड़ में जाए ये रोज़ की साफ़ सफाई , जब आना होगा तो एक दिन पहले खबर आ जाएगी , तब देखी जाएगी ।" और अगर आज का समय होता तो यही सोच लेते , " जब आना होगा , कोई तो फेसबुक पर लिख ही देगा " ।
और एक दिन उसकी इंतज़ार पूरी हुई , भगवान आ ही गये । इंतज़ार जब आरंभ हुई थी तो उसकी उम्र कोई सोलह बरस की रही होगी और जब इंतज़ार को रंग लगा तो सारे बाल पक चुके थे और उमर आखिरी पडाव पर थी । जब इंतज़ार आरंभ की थी तो राम जी का तो जन्म भी न हुआ था । ऋषिओं ने उनके स्वागत और आवभगत की पूरी तैयारी की हुई थी पर भगवान सीधे उस की कुटिया पर पहुंचे जो जाति से भील थी और सभी ऋषि उसे हीन दृष्टि से देखते थे ।
राम जी को अपने घर आया देख वह महिला जो हीन कुल में जन्मी थी के हर्ष का ठिकाना न रहा ।
उसे तो उम्मीद ही न थी कि भगवान उसके घर आ जाएंगे । उसकी आँखों से अश्रु धारा बहने लग गयी । यह उम्मीद तो ऋषिओं को भी न थी ।
भील महिला ने उन्हें बैठने को जगह दी और जो फल ( उस दिन उसे बेर मिले थे ) उसने इक्कठे किये थे आगे रख दिया । अभी उसने उन बेरों के स्वाद का निरिक्षण नही किया था , इस लिए एक एक बेर को दांत से काटती और भगवान को देती । भगवान ने एक बेर लक्ष्मण को देते हुए कहा , " लो भ्राता , ये  भक्त का प्रसाद है , भक्त के प्रेम का प्रसाद है । इसे तुम भी लो । देखो कितने प्रेम से दे रही है ।
पर लक्ष्मण ने उन बेरों को इस लिए मुंह में नही लिया क्यों कि भीलनी हर बेर को पहले दांत से काटती , उसके स्वाद का निरिक्षण करती और फिर भगवान को दे रही थी । लक्ष्मण को बुरा लग रहा था पर राम थे कि आनन्द पूर्वक ग्रहण कर रहे थे । लक्ष्मण ने भाई की आँख बचा कर पिछली तरफ फैंकता रहा ।
राम से कुछ छिपा तो था नही । राम जी ने मन में सोचा ," भक्त का प्रसाद था लक्ष्मण , तुमने ग्रहण नही किया ।  बहुत प्रेम से दे रही है और फिर इसने उपनी उम्र हमारी इंतज़ार में गुज़ार दी । मन ही मन कहते हैं कि लक्ष्मण ले लेते तो ठीक था , भक्त का प्रेम से दिया प्रसाद , लक्ष्मण तुमने उसकी भावना का आदर नही किया । सीधे हाथ ले लेते तो ठीक था , लेना तो तुम्हे पड़ेगा ही , बस अब इंतज़ार करो ।"
पिछली तरफ गिरते बेरों को कुछ पक्षिओं ने बीज सहित खा लिया । वे प्रवासी पक्षी थे । कहीं दूर से आये थे , किसी पहाड़ से  , वे पक्षी वापिस चले गये और वहाँ उनकी विष्ठा के साथ वे बीज निकले । उन बीजों से जो पौधे उगे , उनमे से प्रकाश निकला करता था क्योंकि उनमे भीलनी की भक्ति समाई हुई थी ।
धीरे धीरे सारा पहाड़ उन पौधों से भर गया । सारा पहाड़ हर वक्त प्रकाशमान रहता था ।
राम रावण युद्ध में जब लक्ष्मण मूर्छित हुए तो वही भक्त का प्रसाद ( संजीवनी बूटी ) लक्ष्मण को खिलाई गयी ।अगर सीधे हाथ भक्त का प्रसाद ले लेते तो प्रकृति को ये भक्त का प्रसाद खिलाने का इंतज़ाम न करना पढ़ता ।
आज बस इतना ही ।

उम्मीद है मेरा लिखा आज का ( blog post ) आपको अवश्य पसंद आया होगा ।
किसी प्रकार से कोई भूल हो गयी हो तो कृपया क्षमा कर देना ।
Inder singh ( इंद्र सिंह )
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क्या इतनी लम्बी इंतज़ार हमसे हो सकती है ? हमसे दो ढाई घंटे की भजन बन्दगी तो होती नही , इतना लम्बा इंतज़ार कैसे होगा , ये एक सोचने का विषय है ।

5 comments:

  1. 卐 सत्यराम 卐

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  2. बहुत खूब, इन्दर जी! जय गुरु!

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    1. To aneela ji and pravesh k. Singh ji .
      धन्यवाद ।

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  3. रुला ही दिया जी जय श्री गुरु देव जी की जय श्री राम

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  4. धन्यवाद dharmvir sharma जी ।

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